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उड़ते परिंदों की उड़ान देखो 
पानी को छु के निकलती है 
जैसे कोई स्पर्श हो मिठास भरा 

हरित खेतों में  पानी की बूँदें 
उछलती है कूदती हूँ 
हर रंग को और निखारती हैं 

सूरज की किरनें सुनेहरा करती हैं 

हर रंग को, 
उभरता हर कतरा है 

नीले अम्बर मिलता दूर है कही शितिज़ पर 
तलाश है  उसे भी  अपनी ज़मीन की 

समीर में तमन्ना है न  जाने किस मंज़र की 
गुज़रते हुए ऐसा एहसास महसूस हो 
जो आह भरने पर मजबूर कर दे 

7 thoughts on “

      1. suyash220

        Both in 3 hours, now that’s impressive..hope you take the train again when coming back – for they were a pleasure to read 🙂

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